हिंदू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध सभी उनके लिए एक समान थे। उनका दरबार हर उस इंसान के लिए खुला था जो न्याय मांगता था। उनकी प्रजा उन्हें ईश्वर का अवतार मानती थी क्योंकि वे हमेशा कमजोरों के साथ खड़े रहते थे। महाराज विक्रमादित्य की तलवार की धार जितनी प्रखर थी उनका हृदय उतना ही करुणामय था। वे युद्ध में अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए विख्यात थे। मगर उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी दया और निष्पक्षता।
उन्होंने कभी किसी की मासूमियत पर हाथ नहीं उठाया। उनके जीवन में कई युद्ध हुए। मगर उन्होंने कभी किसी की इज्जत को ठेस नहीं पहुंचाई। उनकी सेना में हर धर्म के सैनिक थे और वे सबको एक समान सम्मान देते थे। उनकी प्रजा कहती थी कि महाराज विक्रमादित्य का शासनकाल स्वर्ण युग था। जहां हर इंसान को न्याय और सुरक्षा का आलम था। एक दिन सुलेखा ने अपार साहस जुटाया और रात के अंधेरे में रुकनाबाद के महल से भाग निकली।
वह जंगलों और पहाड़ों को पार करती हुई उज्जैन पहुंची और अपनी करुण कहानी सुनाई। उसने बताया कि कैसे जुल्फरार ने उसकी मां को मार डाला। कैसे उसने और उसकी सहेलियों मीरा, जिना और झाला को धोखे से अपनी बेगम बनाया। उसने जुल्फरार की क्रूरता का वर्णन किया। कैसे वह रानियों और दासियों को अपनी हवस का शिकार बनाता था। कैसे वह उनकी मासूमियत को रौंदता था और कैसे रुकनाबाद की जनता उसके अत्याचारों से त्रस्त थी।
जुलेखा की बातें सुनकर महाराज विक्रमादित्य का हृदय, क्रोध और करुणा से भर उठा। उनका चेहरा गुस्से से तमतमा गया। मगर उनकी धर्मनिष्ठा ने उन्हें संयमित रखा। उन्होंने जुलेखा को आश्वासन दिया कि वे रुकनाबाद को जुल्फरार के आतंक से मुक्त कराएंगे। उन्होंने तत्काल अपने सेनापति को बुलाया और एक विशाल सेना तैयार करने का आदेश दिया। उज्जैन की सेना जो अपनी अनुशासित शक्ति और शौर्य के लिए विख्यात थी रुकनाबाद की ओर कूच कर गई।
जब जुल्फरार को इसकी सूचना मिली उसने भी अपनी सेना को तैयार किया। उसकी सेना में भाड़े के सैनिक और क्रूर योद्धा थे।