नीरा कुछ कह पाती, तभी भीतर से उसका भाई, विजय बाहर आया। विजय का चेहरा गंभीर था, पर उस गंभीरता में बहन के लिए अपनापन कहीं खो गया था।

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माँ की चिट्ठी (अध्याय 2)

story part 2

रात का सन्नाटा गाँव पर उतर चुका था। दूर कहीं कुत्ते भौंक रहे थे, और बीच-बीच में झींगुरों की आवाज़ वातावरण को और गहरा बना रही थी। नीरा चारपाई पर बैठी थी, सामने बच्चों के मासूम चेहरे नींद में खोए हुए थे। मगर उसकी आँखों में नींद कहाँ थी। माँ का खत उसके तकिए के नीचे दबा था। बार-बार उसका मन उसे निकालकर पढ़ने का होता, लेकिन फिर डर लगने लगता—

“अगर इसमें ऐसा राज़ है जिसे भैया और भाभी ने जानबूझकर छुपाया… तो क्या सचमुच मेरा सामना करने की हिम्मत है?”

उसी उलझन में वह पूरी रात जागती रही।

सुबह होते ही गाँव का माहौल फिर अपने ढर्रे पर लौट आया। चाय की दुकानों पर किसान जुटने लगे, औरतें पानी भरने के लिए कुएँ की ओर जाने लगीं। नीरा जैसे ही घर से बाहर निकली, कई नज़रें उस पर टिक गईं।

“अरे देखो, विजय की बहन फिर निकली है।”
“सुना है कल फिर भाई-भाभी से झगड़ा हुआ।”
“अब कोर्ट-कचहरी तक बात जाएगी तो गाँव की इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।”

नीरा ने सुनने की कोशिश की, लेकिन भीतर ही भीतर उसका दिल टूटता रहा।

उधर हवेली में भाभी कविता और विजय आमने-सामने बैठे थे। कविता का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था।
“देखा न तुमने? मैंने उसे साफ़ निकाल दिया, फिर भी कल रात गाँव भर में हमारी ही निंदा हो रही है। सब कहते हैं कि विजय अपनी बहन को संभाल नहीं पा रहा। अगर उसने कहीं वकील पकड़ लिया तो समझ लो, हमारी नींद हराम हो जाएगी।”

विजय ने सिर झुका लिया। वह जानता था कि कविता सच कह रही है। मगर नीरा की बेबसी उसके दिल को कहीं न कहीं चुभ रही थी।
“कविता, तू बार-बार क्यों सोचती है कि नीरा हमारी दुश्मन है? वो तो बस बच्चों का पेट पालना चाहती है।”

कविता हँस पड़ी, मगर वह हँसी ज़हर से भरी हुई थी।
“अरे, औरतें अगर सिर्फ़ पेट पालना चाहतीं तो चुपचाप मजदूरी करतीं। यहाँ तो मामला कुछ और ही है। नीरा को पैतृक संपत्ति चाहिए। और अगर उसने आवाज़ उठा दी तो हमें बाँटकर आधा हिस्सा देना पड़ेगा। सोच, दुकानें, खेत, सब पर उसका हक़ हो जाएगा। क्या तू चाहता है कि हम भीख माँगते फिरें?”

विजय ने कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप बैठा रहा। उसकी चुप्पी कविता को और ताक़त देती गई।

दोपहर होते ही गाँव में एक नई अफ़वाह फैल गई। किसी ने कहा कि नीरा वकील से मिलने शहर गई थी। किसी ने कहा कि वह कोर्ट में केस डालने वाली है।

नीरा जब कुएँ पर पानी भरने पहुँची तो औरतें आपस में कानाफूसी कर रही थीं।
“भाई-बहन कोर्ट पहुँचेंगे… कितनी शर्म की बात है।”
“बच्चों की खातिर ही सही, मगर क्या लड़की को भाई पर मुकदमा करना चाहिए?”

नीरा के कानों में ये बातें पिघले शीशे की तरह उतर रही थीं। उसने बर्तन उठाया और बिना जवाब दिए लौट आई।

उस शाम उसने बच्चों को खाना खिलाया। छोटी बेटी राधा ने पूछा—
“माँ, क्या हम भी कभी बड़े घर में रहेंगे, जैसे चाचाजी रहते हैं?”

नीरा का दिल बैठ गया। उसने बेटी को सीने से लगाया और बोली—
“हाँ बेटा, ज़रूर रहेंगे। पर इसके लिए हमें मेहनत करनी होगी।”

बेटा आरव धीरे से बोला—
“माँ, अगर पापा होते तो हमें ये सब नहीं झेलना पड़ता।”

नीरा का दिल छलनी हो गया। आँखों में आँसू आ गए, मगर उसने बच्चों के सामने खुद को संभाला।

रात को जब बच्चे सो गए, नीरा ने फिर से माँ का खत निकाला। काँपते हाथों से उसने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया।

“मेरे बच्चों,
अगर ये चिट्ठी तुम्हारे हाथ लगे तो समझना कि मैं वह सच बताना चाहती थी जिसे दुनिया से छुपाकर रखना पड़ा। तुम्हारे पिता ने जो संपत्ति बनाई है, उसमें बेटा-बेटी बराबर के हक़दार हैं। अगर कभी कोई तुम्हारे हक़ से तुम्हें वंचित करने की कोशिश करे, तो डरना मत। अपने हिस्से की लड़ाई लड़ना। याद रखना—तुम्हारी माँ हमेशा तुम्हारे साथ है।”

नीरा पढ़ते-पढ़ते सन्न रह गई। माँ ने साफ़ लिखा था कि पैतृक संपत्ति पर उसका उतना ही हक़ है जितना विजय का। यह खत मानो उसके लिए हथियार बन गया।

अगले दिन नीरा ने साहस जुटाकर गाँव के वकील मिश्रा जी से मुलाक़ात की। मिश्रा जी ने ध्यान से खत पढ़ा और फिर बोले—
“बिटिया, तुम्हारी माँ ने बहुत समझदारी से लिखा है। यह चिट्ठी अदालत में सबूत की तरह इस्तेमाल हो सकती है। मगर याद रखना, मुकदमा आसान नहीं होगा। गाँव वाले तुझ पर उंगलियाँ उठाएँगे, रिश्तेदार तुझे गालियाँ देंगे। क्या तू सब झेल पाएगी?”

नीरा ने गहरी साँस ली।
“मिश्रा जी, मैंने अब तक सब झेला है—भूख, ताने, अपमान। मगर अब अपने बच्चों का भविष्य मैं दाँव पर नहीं लगने दूँगी। चाहे जितना भी लंबा मुकदमा हो, मैं लड़ूँगी।”

मिश्रा जी ने केस दाख़िल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। जैसे ही गाँव में यह खबर फैली, खलबली मच गई।

हवेली में कविता चीख उठी—
“मैंने कहा था न! ये औरत हमें बर्बाद करके छोड़ेगी। देख लेना विजय, अगर अदालत ने उसका हक़ दे दिया तो हमें आधा घर छोड़ना पड़ेगा।”

विजय का चेहरा पीला पड़ गया। मगर वह अब भी कुछ नहीं बोला। उसकी चुप्पी कविता को और भड़काती गई।

गाँव में लोग अब खुलकर बातें करने लगे। कोई नीरा को साहसी कहता, कोई लालची।

“कमाल है, भाई पर ही केस कर दिया।”
“न्याय माँगना गलत नहीं है, मगर तरीक़ा…?”
“देखना, अदालत में बहुत बदनामी होगी।”

इन फुसफुसाहटों के बीच नीरा हर सुनवाई के लिए शहर जाती। बच्चों के लिए झोले में सूखे पराठे रख लेती, ताकि खर्चा कम हो। हर बार कोर्ट से लौटते हुए बच्चे उससे पूछते—
“माँ, आज जज अंकल ने क्या कहा?”

और नीरा मुस्कुराकर कहती—
“उन्होंने कहा, जल्द ही सच सामने आएगा।”

इसी बीच, कविता ने चालें चलना शुरू कर दीं। उसने गाँव के कुछ लोगों को अपने पक्ष में कर लिया।

एक दिन बाजार में नीरा सब्ज़ी लेने पहुँची तो सब्ज़ी वाले ने मुँह फेर लिया।
“माफ़ करना बहनजी, मेरा माल ख़त्म हो गया।”

उसने देखा, बगल में कोई और ग्राहक उसी से भर-भरकर सब्ज़ी ले रहा था। नीरा समझ गई—ये सब भाभी की साज़िश है। मगर उसने हार नहीं मानी।

रात को जब वह अकेली बैठी थी, उसके भीतर आवाज़ गूँजी—
“क्या सचमुच मैं गलत कर रही हूँ? भाई-बहन का रिश्ता तोड़कर कोर्ट जाना… क्या यही सही है?”

मगर उसी पल बच्चों के मासूम चेहरे उसकी आँखों के सामने तैर गए। उसने दृढ़ता से सोचा—
“अगर रिश्ते बचाने के लिए बच्चों का भविष्य कुर्बान करना पड़े, तो ऐसे रिश्तों को निभाना बोझ है। मुझे माँ की चिट्ठी ने रास्ता दिखा दिया है। अब पीछे मुड़ना नहीं।”

इस तरह नीरा की ज़िंदगी में एक नई सुबह होने लगी।
उसके संघर्ष की कहानी पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन गई।
और अदालत में तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही…

लेकिन नीरा अब टूटने वाली नहीं थी।

Ankit Verma

अंकित वर्मा एक रचनात्मक और जिज्ञासु कंटेंट क्रिएटर हैं। पिछले 3 वर्षों से वे डिजिटल मीडिया से जुड़े हैं और Tophub.in पर बतौर लेखक अपनी खास पहचान बना चुके हैं। लाइफस्टाइल, टेक और एंटरटेनमेंट जैसे विषयों में विशेष रुचि रखते हैं।

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