अध्याय 3 (अंतिम फैसला)
कोर्ट की तारीख़ पर तारीख़ बीतती रही। गाँव में नीरा के खिलाफ़ फुसफुसाहट और भाभी कविता की साज़िशें और तेज़ होती गईं। लेकिन नीरा अब अपने डर से ऊपर उठ चुकी थी।
अदालत का निर्णायक दिन
उस दिन अदालत के बाहर भारी भीड़ थी। गाँव से लेकर शहर तक के लोग जमा हो गए थे। सब देखना चाहते थे—क्या सचमुच एक बहन अपने भाई से मुक़दमा जीत पाएगी?
अंदर जज ने गम्भीर स्वर में कहा—
“मुकदमा अब अपने अंतिम चरण में है। दोनों पक्ष अपनी-अपनी दलीलें रखें।”
विजय के वकील ने जोरदार दलील दी—
“माननीय न्यायालय, यह मुकदमा केवल संपत्ति का नहीं, बल्कि परिवार और परंपरा का है। भारतीय समाज में बहन हमेशा भाई के सहारे रहती आई है। यदि हर बहन संपत्ति बाँटने लगेगी तो पारिवारिक एकता समाप्त हो जाएगी।”
भाभी कविता की आँखों में चमक आ गई। उसे लगा कि अब जज उसी के पक्ष में फैसला देंगे।
फिर नीरा के वकील मिश्रा जी खड़े हुए। उन्होंने हाथ में माँ की चिट्ठी उठाई।
“माननीय न्यायालय, ये कोई साधारण चिट्ठी नहीं। यह एक माँ का आख़िरी संदेश है। इसमें साफ़ लिखा है कि बेटी और बेटे दोनों बराबर के अधिकारी हैं। भारतीय क़ानून भी यही कहता है कि पैतृक संपत्ति पर बेटा और बेटी समान हक़ रखते हैं। यह मुकदमा भाई-बहन का नहीं, बल्कि न्याय और अन्याय का है।”
नीरा की आँखें भर आईं। उसने सोचा—”माँ, आज आपकी लिखी चिट्ठी ही मेरी ढाल है।”
भाभी की आख़िरी चाल
फैसले से पहले कविता ने खुद गवाही देने की ठानी। वह अदालत के कटघरे में खड़ी होकर बोली—
“माननीय न्यायालय, नीरा को पैसे की भूख है। यह औरत अपने बच्चों का बहाना बनाकर हमारी जायदाद हड़पना चाहती है। अगर इसे हक़ मिल गया तो यह औरत गाँव की हर बेटी को बिगाड़ देगी। रिश्तों में ज़हर घोल देगी।”
अदालत में फुसफुसाहट शुरू हो गई। लोग नीरा की ओर देखने लगे।
तभी नीरा खड़ी हुई। उसकी आवाज़ काँप रही थी, मगर शब्द सच्चाई से भरे थे—
“माननीय न्यायालय, अगर मुझे पैसे की भूख होती तो मैं कब का किसी अमीर आदमी से मदद माँग लेती। मैं तो बस अपने बच्चों के भविष्य की भीख नहीं, अपना हक़ चाहती हूँ। मेरे पिता ने जिस आँगन में मुझे पहली किताब दी थी, वही आँगन आज मुझसे छीन लिया गया। क्या सिर्फ़ इसलिए कि मैं विधवा हूँ? क्या इसलिए कि मैं औरत हूँ?”
फैसला
जज ने हथौड़ा बजाया और कहा—
“अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं और सबूतों पर गौर किया। भारतीय क़ानून के अनुसार बेटा और बेटी दोनों पैतृक संपत्ति पर समान अधिकार रखते हैं। अतः न्यायालय यह फैसला सुनाता है कि नीरा को इस संपत्ति का बराबर का हिस्सा मिलेगा।”
पूरा हॉल गूंज उठा। किसी ने ताली बजाई, किसी ने कान मुँह पर रख लिए। गाँव के लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगे।
नीरा की आँखों से आँसू बह निकले। बच्चों ने दौड़कर उसकी गोद पकड़ ली। उनके चेहरे पर पहली बार सुकून था।
रिश्तों की दरार
फैसले के बाद जब नीरा बाहर निकली, विजय सामने खड़ा था। उसका चेहरा बुझा हुआ था। नीरा कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शब्द गले में अटक गए।
विजय धीरे से बोला—
“नीरा, तूने जीत तो ली, लेकिन तूने मुझे खो दिया।”
नीरा के होंठ काँपे।
“भैया, मैंने तुझे कभी नहीं खोना चाहा। मैंने बस अपने बच्चों का भविष्य माँगा। अगर तूने साथ दिया होता तो ये लड़ाई कभी अदालत तक नहीं पहुँचती।”
विजय ने नज़रें फेर लीं। कविता उसका हाथ पकड़कर खींच ले गई।
एक नई शुरुआत
घर लौटते समय नीरा ने आसमान की ओर देखा। जैसे माँ की आँखें वहीं से उसे देख रही हों।
उसने मन ही मन कहा—
“माँ, मैंने आपका कहा मान लिया। अब मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है। लेकिन दिल के किसी कोने में दर्द है कि भाई को हमेशा के लिए खो दिया।”
बच्चों ने उसकी गोद में सिर रख दिया। नीरा ने उन्हें कसकर गले लगाया।
अब उसके पास ज़मीन थी, मकान था, और सबसे बड़ी बात—अपनी मेहनत से जीने का रास्ता था।
मगर अंत अधूरा…
गाँव के लोग धीरे-धीरे चुप हो गए। कोई उसे लालची कहता रहा, कोई साहसी।
लेकिन नीरा के लिए ये सब अब मायने नहीं रखता था।
रात को जब वह बच्चों को सुलाकर आँगन में बैठी, तो मन में वही सवाल गूंज रहा था—
“क्या मैंने सही किया? संपत्ति तो मिल गई, पर भाई का रिश्ता खो दिया।
क्या बच्चों का भविष्य रिश्तों से बड़ा होता है?”
उस सवाल का जवाब शायद ज़िंदगी भर उसे न मिल सका।
मगर उसने एक बात तय कर ली थी—
अब उसके बच्चे कभी भूखे नहीं सोएँगे, कभी दूसरों की दया पर नहीं जिएँगे।
और यही सोचते हुए उसने आसमान की ओर देखा…
चाँदनी जैसे कह रही थी—
“तूने सही किया, बेटी।”












