नीरा कुछ कह पाती, तभी भीतर से उसका भाई, विजय बाहर आया। विजय का चेहरा गंभीर था, पर उस गंभीरता में बहन के लिए अपनापन कहीं खो गया था।

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माँ की चिट्ठी (अध्याय 1)

गाँव के बीचोबीच, सदियों पुराना पीपल का पेड़ अपनी फैली हुई शाखाओं के साथ जैसे हर गुजरते इंसान की चुपचाप गवाही देता था। उसी पीपल के नीचे खड़ा था नीरा का पुश्तैनी मकान। लाल ईंटों से बना हुआ बड़ा-सा हवेलीनुमा घर, जिसके दरवाज़े पर लगे पीतल के छल्ले अब जंग खाकर काले पड़ चुके थे। कभी इस आँगन में हंसी-खुशी की महफ़िलें सजती थीं, लेकिन आज वहाँ सन्नाटा पसरा रहता था।

नीरा धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई घर के दरवाज़े तक पहुँची। चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी। आँखों में सूजन थी, जैसे रातभर नींद नहीं आई हो। दरवाज़े की चौखट पार करते ही भीतर से उसकी भाभी, कविता की कर्कश आवाज़ गूँज उठी—

“हाय राम! फिर आ गई तू? अरे, कोई शर्म-हया भी है या नहीं? हर बार हाथ फैलाने चली आती है। औरत होकर मेहनत करने की बजाय बस भाई पर बोझ बनी रहती है।”

नीरा ने भाभी की ओर देखा। मन में बहुत कुछ था, मगर आवाज़ में वही थकान और बेबसी—

“भाभी, मेरी भी मजबूरी है। ज़रा मेरी जगह खुद को रखकर देखो। जवान पति अचानक चल बसे, तीन-तीन छोटे बच्चों की ज़िम्मेदारी मेरे सिर पर है। ऊपर से बीमारी का खर्च जिसने घर-बार सब निगल लिया। अब मेरे पास इस छत के सिवा कुछ नहीं है। कहो तो कहाँ जाऊँ?”

कविता ने हाथ झाड़ते हुए, आँखें तरेरीं—
“तेरा रोना-धोना सुनते-सुनते कान पक गए। गाँव की औरतें दिन-रात खेतों में खटती हैं, मजूरी करती हैं। तू क्यों नहीं करती? तुझे तो बस अपने भाई की कमाई पर ऐश करनी है।”

नीरा कुछ कह पाती, तभी भीतर से उसका भाई, विजय बाहर आया। विजय का चेहरा गंभीर था, पर उस गंभीरता में बहन के लिए अपनापन कहीं खो गया था। वह कुछ देर नीरा को देखता रहा, फिर धीमी आवाज़ में बोला—

“संध्या… मैं जानता हूँ तेरा दर्द। मैं भी चाहता हूँ कि तेरे बच्चे चैन से पलें। मगर सोच तो सही, मैं कब तक सब अकेले करता रहूँगा? तू भी कुछ कदम बढ़ा। मैं तुझे शहर की मिठाई की फैक्ट्री में काम दिला दूँगा। दस-बारह हज़ार महीने मिलेंगे। अपना गुज़ारा आराम से कर लेगी।”

यह सुनकर नीरा की आँखें भर आईं। काँपते स्वर में उसने कहा—
“भैया, अगर मेरे पति आज ज़िंदा होते तो मेरी नौकरी की बात पर तूफ़ान खड़ा कर देते। वे कभी मंज़ूर नहीं करते कि मैं बच्चों को छोड़कर छोटे-मोटे काम करूँ। और तुमसे पूछती हूँ—क्या तुझे अच्छा लगेगा कि करोड़ों की जायदाद वाले विजय की बहन शहर में मजदूरी करती फिरे? लोग क्या कहेंगे? यही कि बहन भूखी मर गई, मगर भाई ने दो रोटियाँ न दीं?”

नीरा की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कविता गुस्से से खड़ी हो गई।
“बस कर अपनी नौटंकी! साफ़-साफ़ दिख रहा है कि तेरी नज़र जायदाद पर है। तू हमें बदनाम करना चाहती है। जा, निकल जा मेरे घर से! दोबारा कदम मत रखना।”

नीरा स्तब्ध रह गई। उसने उम्मीद की थी कि विजय बीच में बोल पड़ेगा, भाभी को रोकेगा। मगर विजय चुपचाप खड़ा रहा। उसकी नज़रें ज़मीन पर थीं। न उसने नीरा को रोका, न कविता को टोका।

नीरा के कदम भारी हो गए। आँसुओं से धुंधला दृश्य उसे और टूटा हुआ महसूस करा रहा था। धीरे-धीरे आँगन पार करके बाहर निकल आई।

बाहर आकर उसने गहरी साँस ली। हवा में पीपल के पत्तों की सरसराहट गूँज रही थी, जैसे कोई पुराना किस्सा सुना रही हो। उसकी आँखें उस हवेली पर टिक गईं—
“यह वही घर है जहाँ मैं खेलकर बड़ी हुई थी। यह वही आँगन है जहाँ पापा ने मेरी पहली किताब हाथ में दी थी। आज वही घर मेरे लिए पराया हो गया है। क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं विधवा हूँ? या इसलिए कि मुझे अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करना है?”

उसके कदम धीरे-धीरे गाँव की पगडंडी पर बढ़े। रास्ते में पड़ोस की औरतें कानाफूसी करतीं—
“देखो-देखो, फिर विजय के घर से निकाली गई।”
“बेचारी… मगर थोड़ी ज़िम्मेदारी खुद भी लेनी चाहिए थी।”

ये बातें नीरा के दिल पर चोट करतीं, लेकिन वह चुप रही। उसके मन में अब सिर्फ बच्चों के चेहरे तैर रहे थे—
नन्हा बेटा जो स्कूल जाते वक्त पूछता, “माँ, कल स्कूल की फीस जमा कर देंगे ना?”
और छोटी बेटी जो रात को भूखे पेट सोते हुए भी कहती, “माँ, तुम रोओ मत, पापा ऊपर से सब ठीक कर देंगे।”

नीरा की आँखों से आँसू बह निकले। उसने मन ही मन ठान लिया—
“अब मैं किसी की दया की मोहताज नहीं रहूँगी। अब अपने बच्चों का भविष्य मैं खुद लिखूँगी। चाहे इसके लिए मुझे पूरी दुनिया से लड़ना पड़े।”

उस रात नीरा घर लौटी। छोटा-सा टूटा-फूटा कमरा, जिसमें चारपाई पर सोते बच्चे और कोने में रखा एक संदूक। वह संदूक नीरा के मायके से आया था। उसके अंदर पुराने कपड़े, कुछ तस्वीरें और माँ के हाथ से लिखे खत पड़े थे।

नीरा ने थकी हुई हालत में संदूक खोला। शायद बच्चों के लिए कपड़े खोज रही थी, मगर तभी उसकी नज़र एक पुराने पीले लिफ़ाफ़े पर पड़ी। उस पर माँ की लिखावट थी—
“मेरे बच्चों के नाम…”

नीरा का दिल ज़ोरों से धड़क उठा। काँपते हाथों से उसने लिफ़ाफ़ा उठाया। आँखों में आँसू भर आए।

“क्या माँ ने सचमुच हमारे लिए कुछ लिखा था? अगर हाँ, तो अब तक छुपा क्यों रहा? भैया ने कभी क्यों नहीं बताया?”

लिफ़ाफ़ा खोलते ही उसके भीतर से पुराने ज़माने की स्याही की खुशबू आई। काग़ज़ पीला पड़ चुका था, लेकिन माँ की लिखावट साफ़ थी। नीरा ने पढ़ना शुरू किया—

“मेरे प्यारे बच्चों,
अगर ये खत तुम्हारे हाथ लगे तो समझना कि मैं तुम्हें अपना सबसे बड़ा सच बताना चाहती थी…”

नीरा पढ़ते-पढ़ते सन्न रह गई। माँ ने जो लिखा था, वह उसकी ज़िंदगी बदल सकता था।

उस पल नीरा को एहसास हुआ यह लड़ाई सिर्फ़ रोटी-कपड़े की नहीं है, बल्कि सच्चाई उजागर करने की भी है।
वह लिफ़ाफ़ा कसकर सीने से चिपका लेती है। आँखों में आँसू हैं, मगर होंठों पर एक अजीब-सी दृढ़ता।

उसने सोचा
“अब वक्त आ गया है। अब मैं सिर्फ़ बहन या बेटी नहीं रहूँगी, बल्कि माँ बनकर अपने बच्चों के लिए हक़ माँगूँगी। चाहे इसके लिए मुझे अदालत के दरवाज़े क्यों न खटखटाने पड़ें।”

और इस तरह नीरा की ज़िंदगी की सबसे बड़ी जंग शुरू होने वाली थी…

Ankit Verma

अंकित वर्मा एक रचनात्मक और जिज्ञासु कंटेंट क्रिएटर हैं। पिछले 3 वर्षों से वे डिजिटल मीडिया से जुड़े हैं और Tophub.in पर बतौर लेखक अपनी खास पहचान बना चुके हैं। लाइफस्टाइल, टेक और एंटरटेनमेंट जैसे विषयों में विशेष रुचि रखते हैं।

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