अर्जुन ने मेरी ओर घूरते हुए तकिया फेंका। उसकी आँखों में हमेशा की तरह वही तिरस्कार था—जैसे मैं उसके लिए कभी मायने ही नहीं रखती थी। तकिया मेरी गोद में गिरा तो मैंने उसकी थकी हुई सिलाई और फीका पड़ा कपड़ा देखा। बरसों से यह मेरे साथ था, लेकिन उस पल वह सिर्फ़ अर्जुन की नफ़रत का प्रतीक लग रहा था।
हमारी शादी को पाँच साल हो चुके थे। इन सालों में मैंने हर कोशिश की थी कि यह रिश्ता बचे। सुबह जल्दी उठकर पूरे घर का काम करती, उसके लिए खाना बनाती, शाम को उसका इंतज़ार करती। लेकिन उसकी ज़िंदगी में मेरे लिए बस चुप्पी और ठंडी निगाहें थीं। कभी-कभी लगता था जैसे मैं उसकी पत्नी नहीं, बल्कि कोई परछाई हूँ—जो बस घर में घूमती रहती है।
उस दिन उसने तलाक़ के कागज़ मेरे सामने फेंके और कहा, “हस्ताक्षर कर दो। अब और वक्त क्यों बर्बाद करना?” उसकी आवाज़ बिल्कुल वैसी थी जैसे कोई अनजान आदमी ठंडेपन से सौदा खत्म करता है। मैं अंदर तक काँप गई, लेकिन आँसू रोकते हुए मैंने दस्तख़त कर दिए।
उसके बाद मैंने अपने कुछ कपड़े समेटे और वही तकिया उठाया। जब मैं दरवाज़े से बाहर निकली, उसने व्यंग्य में कहा, “ले जाओ इसे, शायद अब भी तुम्हें काम आए।”












