मैं अपने छोटे से पीजी कमरे तक पहुँच गई। पहली बार लगा कि अब मेरे पास सिर्फ़ यह तकिया ही है। मैंने सोचा, इसे धो दूँगी—कम से कम साफ़ तकिये पर तो चैन से सो पाऊँगी। जैसे ही मैंने ज़िप खोला, मेरी उँगलियाँ किसी अजीब चीज़ से टकराईं। अंदर एक छोटा-सा बंडल छिपा हुआ था।
मैंने काँपते हाथों से उसे निकाला। अंदर 500 के नोटों की गड्डियाँ थीं और एक कागज़, जिस पर माँ की लिखावट थी।
“बेटी, यह थोड़े-थोड़े पैसे मैंने तेरे लिए बचाए हैं। तकिये में इसलिए रख दिए क्योंकि मुझे पता था, तू कभी मुझसे मदद माँगेगी ही नहीं। अगर कभी ज़िंदगी मुश्किल हो जाए तो इन पैसों से अपने पाँव पर खड़ी हो जाना। किसी भी आदमी के लिए दर्द मत सहना। याद रख, माँ हमेशा तेरे साथ है।”
पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों से आँसू कागज़ पर गिरने लगे। याद आया, शादी वाले दिन माँ ने हँसते-हँसते मुझे यही तकिया दिया था। मैंने कहा था, “माँ, तुम कितनी भावुक हो।” और उन्होंने बस मुस्कुराकर मेरे माथे पर हाथ फेर दिया था। शायद उन्हें तब ही सब पता था।
मैंने तकिये को कसकर सीने से लगा लिया। उस छोटे से कमरे में, उस अकेली रात में, मुझे लगा जैसे माँ मेरे पास बैठी हैं, मुझे थाम रही हैं। उनके शब्दों ने मेरी टूटी हुई हिम्मत को जोड़ दिया।
सुबह जब मैं उठी, तो आईने में खुद को देखा। सूजी हुई आँखें, बिखरे बाल, लेकिन मन में एक अजीब-सी ताक़त थी। मैंने तय कर लिया कि अब मेरी ज़िंदगी किसी और के तिरस्कार से नहीं चलेगी। अब मैं अपने लिए जीऊँगी, माँ के लिए जीऊँगी, और उस नए सफ़र के लिए जीऊँगी जिसे मैंने अब तक टाल रखा था।
अर्जुन, उसका घर, उसकी ठंडी चुप्पी—सब पीछे छूट चुका था। मेरे हाथ में तकिया था, लेकिन अब यह बोझ नहीं, माँ का आशीर्वाद था।
और उसी तकिये के सहारे, मैंने पहली बार महसूस किया कि मेरी ज़िंदगी अभी शुरू हुई है।












