मैंने आँखें मूँद लीं, पर भीतर कहीं एक उजाला था।
“पर सुमन… कल तो मेरी कहानी का पाठ है न साहित्य संस्थान में? वो ‘सैकड़ा’ ख्वाब, जो इन्हीं टूटे घुटनों के सहारे रचे थे, उन्हें लोग सुनेंगे!”
मेरे स्वर में दर्द नहीं, उत्साह था। जैसे कोई बच्चा अपनी पहली ड्राइंग दिखाने को उतावला हो।
बेटे का सपना
उसी वक्त दरवाज़ा चरमराकर खुला। आकाश अंदर आया— आँखों में चमक, कपड़ों पर स्याही के दाग़, और हाथ में कागज़ों का एक पुलिंदा।
“पापा!” उसने जोश से कहा, “देखो, मैंने वो रोबोट का डिज़ाइन पूरा कर लिया! कल स्कूल के साइंस फेयर में ज़रूर जीतूँगा।”
कागज़ पर खिंची हुई रेखाएँ, गियर, मोटर, तारों की उलझन— सबकुछ एक किशोर के ‘सैकड़ों’ ख्वाबों की ठोस तस्वीर थे।
मैं और सुमन ने एक-दूसरे को देखा। कमरे की भारी हवा अचानक हल्की हो गई।
“वाह!” मैंने कहा, “तुम तो सचमुच इंजीनियर बनने की ठान चुके हो।”
आकाश हँसा।
“हाँ पापा, आपकी तरह। आप दर्द में भी कहानियाँ लिखते रहते हो न… मैं भी सपनों में अपना रोबोट बना लेता हूँ।”
उसकी सीधी-सपाट बात ने सुमन की आँखों को नम कर दिया।
सुबह की हलचल
सूरज अभी-अभी पूरब से झाँक रहा था। घड़ी सात बजा रही थी। मैं लाठी का सहारा लेकर डॉक्टर के क्लिनिक पहुँचा। प्रतीक्षा कक्ष में मरीजों की भीड़ थी। घुटना अब भी धधक रहा था— ‘हजारों’ दर्द वाला सच।
सुमन बगल में बैठी थी और अखबार पलट रही थी। तभी मेरा फोन बजा। स्क्रीन पर संपादक महोदय का नाम झिलमिला रहा था।
“प्रकाश जी!” दूसरी ओर से आवाज़ आई, “कल आपकी कहानी का पाठ हुआ न? सबका दिल जीत लिया। एक प्रसिद्ध पत्रिका ने उसे छापने की इच्छा जताई है!”