सुबह का समय था। मोहल्ले की गलियाँ अपनी रोज़मर्रा की रौनक में डूबी थीं। गली के कोने पर दूधवाला घंटी बजा-बजाकर अपनी मौजूदगी जताता घूम रहा था, और सब्ज़ीवाले की ऊँची आवाज़ हर घर में गूँज रही थी। हर घर की रसोई से रोटियों और सब्ज़ियों की खुशबू फैल रही थी। ऐसे ही चहल-पहल वाले माहौल में नीलम अपने आँगन में कपड़े सुखा रही थी। धूप हल्की-हल्की सी चमक रही थी, और हवा में भीनी-भीनी ठंडक थी। सब कुछ सामान्य लग रहा था।
तभी अचानक दरवाज़े पर आहट हुई। नीलम ने देखा, उसकी ननद सीमा हड़बड़ाहट में घर के भीतर चली आई। चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं और आँखों में बेचैनी साफ झलक रही थी।
“भाभी…” सीमा ने धीमे स्वर में कहा, “…आपको पता भी है, कल रात बड़े भैया और अमित में क्या तय हुआ?”
नीलम चौंक गई। वह कपड़े फैलाते-फैलाते ठिठक गई।
“क्या हुआ? क्यों इतनी परेशान लग रही हो?” उसने चिंता से पूछा।
सीमा ने गहरी साँस ली, जैसे कोई भारी बोझ भीतर से बाहर निकालना चाह रही हो। फिर धीरे से बोली—
“उन्होंने माँ-पापा को बाँट दिया है। पापा बड़े भैया के पास रहेंगे और माँ आपके पास।”
नीलम के हाथ से भीगा हुआ कपड़ा ज़मीन पर गिर पड़ा। यह वाक्य उसके कानों में हथौड़े की तरह गूँज रहा था। उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। क्या सचमुच यह वही घर है, जिसे उसने कभी अपने प्यार और अपनापन का आँगन माना था?
यादों का सहारा
नीलम को इस घर में आए बारह साल हो चुके थे। जब वह पहली बार दुल्हन बनकर आई थी, तो बहुत घबराई हुई थी। अजनबी घर, नए लोग, अनजाना वातावरण। लेकिन उसी क्षण उसकी सास, रमा देवी ने उसे गले लगाकर कहा था—
“अब तू मेरी बेटी है।”
वह दिन नीलम आज भी याद करती है। उस एक वाक्य ने उसे सुरक्षा, अपनापन और माँ जैसी ममता का एहसास दिलाया था।
जब शादी के कुछ महीनों बाद नीलम को तेज़ बुखार हुआ, तो रमा देवी ने सारी रात उसके सिरहाने बैठकर उसकी सेवा की थी। पंखा झलती रहीं, दवा देती रहीं, माथे पर पट्टियाँ रखती रहीं।
नीलम ने तभी मन ही मन ठान लिया था कि यह औरत सिर्फ उसकी सास नहीं, बल्कि उसकी दूसरी माँ है।
ससुर हरिशंकर जी भी हमेशा उसे दुलारते रहते। अक्सर हँसते हुए कहा करते—
“नीलम, तूने इस घर में रोशनी ला दी है। अब हमारी बुढ़ापे की चिंता खत्म।”
नीलम को कभी मायके की कमी नहीं खली। उसे लगा था कि अब यही उसका सच्चा घर है। मायके की ममता और स्नेह मानो ससुराल की चौखट पर ही मिल गया हो।












