गांव की जिंदगी की सबसे खास बात यही होती है कि यहां हर सुबह अपने साथ मिट्टी की एक अलग सी खुशबू लाती है। वही महक जो शहरों में किसी इत्र में नहीं मिलती और इसी मिट्टी में पली बड़ी थी हमारी चंपा। 17 साल की चुलबुली मगर उतनी ही समझदार लड़की जिसकी आंखों में पूरे गांव के लिए एक सपना था।
चंपा का गांव था हरिहरपुर एक सीधा सादा सा गांव जहां हर किसी के दरवाजे खुले रहते थे और चूल्हे की रोटी हर किसी के हिस्से आती थी। हरिहरपुर के पास एक नदी बहती थी कोसी। कोसी कोई आम नदी नहीं थी। वो गांव की मां जैसी थी जो उस पार था। वो मानो किसी और दुनिया में था। बच्चे कहते नदिया के उस पार भूत रहते हैं। बुजुर्ग कहते वहां की मिट्टी में किस्से पलते हैं और जवान लोग कहते वो दुनिया थोड़ी अलग है।
लेकिन चंपा के लिए नदिया के उस पार एक रहस्य था। एक सपना कुछ ऐसा जिसे वो छूना चाहती थी। अरे चंपा तू फिर से किनारे बैठ के उस पार क्यों ताक रही है? उस पार क्या ताक रही है? कुछ नहीं मालती। सोच रही हूं क्या कभी उधर जाऊंगी ना जाने क्या होगा उस तरफ। उधर कुछ नहीं है। बस वही लोग हैं जैसे हम हैं।
तू तो ऐसे सोचती है जैसे उधर चांदी की सड़कें बिछी हो। मालती मजाक कर रही थी। लेकिन चंपा सच में जानना चाहती थी क्या नदिया के उस पार कुछ और है एक दिन रघु चाचा गांव के पेड़ के नीचे कहानी सुना रहे थे। सब बच्चे बूढ़े और जवान जमा थे। एक जमाना था जब कोसी नदी सूखी रहती थी और दोनों गांव एक हुआ करते थे।