उन्हें उसी दिन जेल में डाल दिया गया। जेल की जेलर थी सुशीला। एक 35 साल की महिला जो सख्त मिजाज लेकिन इंसाफ पसंद थी। उसने लड़कियों के साथ अच्छा व्यवहार किया। वह उन्हें सुबह नाश्ता देती, दोपहर में खाना और शाम को चाय। जेल का आंगन छोटा था लेकिन सुशीला उन्हें वहां टहलने की इजाजत देती थी।
दो महीने तक सब कुछ ठीक चला। नेहा कभी-कभी सुशीला से मजाक करती कि वे कब बाहर निकलेंगी और सुशीला मुस्कुरा कर कहती कि कानून अपना काम करेगा। मोनी अक्सर आंगन में बैठकर आसमान को देखती जैसे कोई सपना बुन रही हो। रेखा अपने भोलेपन में जेल की दीवारों पर उंगलियों से चित्र बनाती। एक दिन सुशीला का तबादला हो गया। उसकी जगह आया किशनल लाल एक 40 साल का आदमी। वह मोटा और काला था।
उसकी आंखों में एक चालाकी और चेहरे पर क्रूरता की छाया थी। जब वह पहली बार जेल में आया और लड़कियों को देखा तो उसकी नजरें उनकी जवानी पर ठहर गई। उस रात से जेल में एक नया अंधेरा छा गया। किशनल लाल हर रात जब गांव सो रहा होता चुपके से जेल में घुसता। वह सेल का ताला खोलता और अंदर जाता।
फिर शुरू होता था उसका घिनौना खेल। वह लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाता। उनकी चीखें दबाने के लिए वह उनके मुंह पर हाथ रखता, उनके कपड़े फाड़ता और उनकी मासूमियत को रौंदता। नेहा उसका विरोध करती। लेकिन वह उसे थप्पड़ मारकर चुप करा देता। रेखा रोती रहती लेकिन उसकी आवाज जेल की मोटी दीवारों में दब कर रह जाती।
किशन लाल उन्हें धमकाता कि अगर उन्होंने किसी को बताया तो वह उनकी जिंदगी और नर्क बना देगा। हर रात यह सिलसिला चलता और लड़कियों के दिल में डर के साथ-साथ नफरत की आग भी सुलगने लगी। कई रातों तक यह दर्द सहने के बाद एक दिन नेहा का सब्र टूट गया। उसने मोनी और रेखा से कहा कि अब बहुत हो गया।