रेगिस्तान और जंगल के बीच बसे इलाके में लोग गरीबी से लड़ रहे थे। वहाँ एक ही चीज़ थी, जो पूरे गाँव का खून चूस रही थी – काले पत्थरों की खदानें। इन खदानों से निकलने वाला पत्थर शहर में लाखों-करोड़ों में बिकता था, लेकिन गाँववालों को उसके बदले सिर्फ़ जख्म और भूख मिलती थी। खदानों का मालिक था राणा भैया। उसका नाम सुनते ही बच्चों से लेकर बूढ़े तक काँप जाते थे। पुलिस, नेता और अफसर सब उसके हाथ की कठपुतली थे। राणा की दुनिया में इंसान की कीमत उसकी ताक़त और पैसे से तय होती थी, और जो उसके ख़िलाफ़ गया, वह जिंदा वापस नहीं आया।
इसी इलाके में एक गरीब मजदूर का बेटा था अर्जुन। उसके बचपन की कहानी सुनकर ही लोग रो पड़ते। उसके पिता शराब में डूबकर हर दिन पिटाई करते थे और माँ रोज़-रोज़ की जिल्लत झेलते-झेलते बीमार होकर मर गई थी। अर्जुन ने बचपन से ही सीखा था कि दुनिया में किसी पर भरोसा मत करो, अपनी ताक़त ही सब कुछ है। गरीबी, भूख और अपमान ने उसके दिल में आग भर दी थी। उसने बचपन में ही ठान लिया था कि वो किसी का गुलाम नहीं बनेगा।
अर्जुन बड़ा हुआ तो उसके हाथों में मजदूरी के औज़ार थे, लेकिन आँखों में तूफ़ान। दिन-रात पसीना बहाता और दूसरों से दोगुना काम करता। गाँव के बाकी मजदूर उसे अजीब नज़रों से देखते थे, क्योंकि वो कभी किसी से डरता नहीं था। एक बार राणा के आदमी मजदूरों से ज़्यादा काम करवा रहे थे और पैसे काट रहे थे। जब एक बूढ़ा मजदूर विरोध करने उठा तो उसे राणा के गुंडों ने बुरी तरह पीटा। सब लोग चुप खड़े देख रहे थे, लेकिन अर्जुन आगे बढ़ा और कुल्हाड़ी उठाकर गुंडों पर टूट पड़ा। पाँच गुंडों को अकेले निपटा दिया। उस दिन से गाँव वालों की आँखों में चमक आ गई। पहली बार किसी ने राणा के आदमियों को हराया था।
धीरे-धीरे अर्जुन मजदूरों का सहारा बन गया। लोग कहते – “ये लड़का फूल नहीं, आग है।” अर्जुन पर अब सबकी नज़र थी। राणा को भी खबर पहुँच गई थी कि जंगल में कोई नया बाग़ी पैदा हो रहा है।












