उसने हमें देखते ही कहा—“तुम लोग… आखिरकार आ गए।”
हम हक्का-बक्का रह गए। ये कैसे जानता था कि हम आएँगे?
घर में बैठकर उसने बताया कि माँ ने ही सब कुछ उसे समझाया था। उसने कहा—“मैंने पैसे माँगे नहीं थे। माँ खुद भेजती थीं। उन्होंने कहा कि यही उनका प्रायश्चित है।”
मैंने गुस्से में पूछा—“तुम्हें पता है तुम्हारी वजह से हमारी माँ हमसे झूठ बोलती रही? हमें अपनों पर शक करने पर मजबूर होना पड़ा?”
मेरी बहन चीख पड़ी—“इतने पैसे कहाँ गए? तुमने क्या किया उनका?”
राकेश चुप रहा। फिर उसने एक पुराना संदूक निकाला। उसके अंदर सोना-चाँदी नहीं था, बल्कि अस्पताल के ढेरों बिल, दवाइयों की रसीदें और उधारी के कागज़ थे। उसकी आँखें नम हो गईं—“मेरे बेटे को जन्मजात दिल की बीमारी है। पटना के डॉक्टर ने कहा कि इलाज महँगा है। मैं बेबस था। माँ ने खुद कहा कि वो मदद करेंगी। तुम्हारे भेजे हर पैसे से उसकी साँसें चलती रहीं।”












