हम दो बहनें थीं। माँ हमारे लिए सब कुछ थीं। जब से हम दोनों ने मुंबई में काम करना शुरू किया और आमदनी स्थिर हो गई, हमने तय किया कि माँ को हर महीने 20-20 हज़ार रुपये भेजेंगे। कुल मिलाकर 40,000 रुपये—इतनी रकम छोटे शहर नागपुर में एक महिला को आराम से जीने के लिए काफी थी। हमें लगता था कि माँ खुश होंगी, उन्हें कभी पैसों की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।
लेकिन अजीब बात ये थी कि जब भी माँ फ़ोन करतीं, हमेशा शिकायत करतीं कि उनके पैसे खत्म हो गए हैं। कभी कहतीं दवा खरीदनी है, कभी हेल्थ सप्लीमेंट चाहिए, कभी किसी टेस्ट के लिए पैसे चाहिए। हमें ये बात समझ नहीं आती थी कि आखिर इतना पैसा कहाँ जा रहा है। माँ तो सादा जीवन जीती थीं, न कोई बड़ा शौक, न ही फिजूलखर्ची। जब भी पूछते, वो सिर्फ़ यही कहतीं—“सब खर्च हो गया है, चिंता मत करो।”
हम कई बार बहस भी करते, पर उनकी आवाज़ में ऐसी थकान होती कि हम चुप रह जाते। सोचते शायद बुढ़ापे में सचमुच ज़्यादा खर्च हो रहा होगा।
फिर एक दिन जैसे आसमान फट पड़ा। हमें खबर मिली कि माँ को लाइलाज कैंसर हो गया है। सब कुछ मानो पैरों के नीचे से खिसक गया। हम दोनों बहनें फौरन उन्हें दिल्ली के एम्स ले आए। इलाज शुरू हुआ, लेकिन माँ की हालत बिगड़ती जा रही थी। अस्पताल के बिस्तर पर लेटी माँ की आँखें धँस गई थीं, शरीर बेहद कमजोर हो गया था।
पर उस हालत में भी, माँ अक्सर कहतीं—“मेरे पास पैसे नहीं हैं… मुझे दवा लेनी है… दलिया चाहिए।” हम हैरान रह जाते। हमें पता था कि हर महीने 40,000 रुपये उनके खाते में जाते थे। फिर भी वो ऐसे क्यों कह रही थीं, जैसे उनके पास कुछ भी न हो।
कई रातें मैं उनके सिरहाने बैठी सोचती रही। दिल में सवाल उमड़ते—“माँ, इतने पैसे आखिर कहाँ जाते रहे? क्या किसी ने आपसे छीन लिए? या आपने खुद किसी और पर खर्च कर दिए?” पर जब भी पूछती, माँ सिर्फ़ आँसू बहातीं और चुप रह जातीं।
आखिर वो रात आई, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाऊँगी। माँ की साँसें तेज़ हो रही थीं, जैसे हर सांस भारी पड़ रही हो। उन्होंने हमारा हाथ कसकर पकड़ लिया। उनकी आवाज़ काँप रही थी, पर उन्होंने बोलने की कोशिश की—
“मुझे माफ़ कर दो… मैंने वो सारे पैसे खर्च नहीं किए… मैंने सब भेज दिए… किसी और को…”
हम दोनों बहनें दंग रह गईं। दिल जोर से धड़कने लगा। माँ की आँखों से आँसू बह रहे थे। फिर उन्होंने फुसफुसाते हुए कहा—
“वो व्यक्ति… तुम्हारा भाई है।”
कमरे की दीवारें जैसे हिल गईं। मैं और मेरी बहन, दोनों सुन्न रह गए। माँ के होंठ काँप रहे थे, पर उन्होंने सच्चाई बताई।
उन्होंने कहा कि हमारी शादी से पहले, उनके जीवन में एक गलती हुई थी। बिहार के एक छोटे गाँव में उनका एक बेटा हुआ था—जिसे कभी पहचान नहीं मिली, जो गरीबी और अभाव में जीता रहा। माँ ने हमें कभी नहीं बताया, पर अपराधबोध हमेशा उन्हें खाता रहा। उन्होंने हमारी आँखों में झाँकते हुए कहा—“मैंने तुम्हें धोखा दिया… पर मैं अपने खून को अकेला मरने नहीं दे सकती थी। मैंने उसके लिए सब कुछ भेजा।”
उनकी बातों ने हमारे दिल को चीर दिया। हम सोचते रहे—इतने सालों तक हम अपने खून-पसीने की कमाई माँ को भेजते रहे, ताकि वो आराम से जी सकें। और वो सब किसी अजनबी भाई को भेज दिया गया, जिसके बारे में हमने कभी सुना तक नहीं था।
मेरी बहन गुस्से में रो पड़ी—“हमने क्या गलती की थी, माँ? हमने अपनी ज़िंदगी काटकर तुम्हें सब दिया, और तुमने हमें ही अनजान रखा?”
माँ ने बस धीरे से फुसफुसाया—“मुझे माफ़ कर दो…” और फिर उनकी साँसें थम गईं।
अस्पताल का कमरा सन्नाटे में डूब गया। हम दोनों बहनें टूट चुकी थीं। माँ को खोने का दुख अलग, और उनके राज़ का बोझ अलग।
अंतिम संस्कार के बाद भी, हम चैन से नहीं सो पाए। माँ के आखिरी शब्द हमारे कानों में गूंजते रहे—“तुम्हारा भाई…”।
आखिरकार हमने तय किया कि हमें उस भाई को ढूँढ़ना होगा। माँ ने जो त्याग किया, उसका सच हमें जानना होगा।
कुछ हफ्तों बाद, हम बिहार पहुँचे। गाँव छोटा था, टूटी-फूटी झोपड़ियाँ, कच्ची सड़कें। जब गाँव वालों से पूछा, तो सबने हमें एक जर्जर से घर की ओर इशारा किया। वहाँ हमने पहली बार राकेश को देखा—दुबला-पतला, थका हुआ चेहरा।












