करीब दो हफ्ते बाद, अस्पताल से छुट्टी मिली। घर लौटते समय टैक्सी उसी रास्ते से गुज़री, जहाँ हादसा हुआ था। गाड़ी की खिड़की से बाहर देखा तो सड़क किनारे टूटी हुई बेंच पर कोई बुज़ुर्ग बैठे थे। चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ, हाथ में छड़ी, और आँखों में अजीब-सी थकान।
पता नहीं क्यों, दिल ने कहा—रुकना चाहिए।
मैंने टैक्सी रुकवाई और उस बुज़ुर्ग के पास गया। उनके पैरों में पट्टी बंधी हुई थी। मैंने धीमे स्वर में पूछा—
“बाबा… यहाँ कुछ दिन पहले कोई सड़क हादसा हुआ था… एक कार टकराई थी… आप यहाँ थे क्या?”
बुज़ुर्ग ने मेरी तरफ देखा। उनकी आँखें गहरी थीं, जैसे बरसों का दर्द छुपा हो। उन्होंने बस इतना कहा—
“हाँ… था।”
मेरा दिल धड़क उठा। मैंने धीरे से पूछा—
“क्या… आप ही थे जिन्होंने मुझे बचाया था?”
उन्होंने हल्की-सी मुस्कान दी। फिर बोले—
“बेटा, ज़िंदगी बाँटने से ही ज़िंदगी रहती है। अगर उस रात मैंने तुझे वहीं छोड़ दिया होता तो शायद आज तेरी माँ रो रही होती, तेरी पत्नी विधवा हो चुकी होती। और मैं… मैं मरते दम तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाता।”
मेरे गले से आवाज़ नहीं निकली। आँखें भर आईं।
बुज़ुर्ग ने आगे कहा—
“जानता है, जब तुझे टैक्सी में डाल रहा था, उसी वक्त एक बाइक ने मुझे भी टक्कर मारी। मेरा पैर टूट गया। लेकिन मैंने सोचा—अगर पहले तुझे बचा लूँ तो फिर अपने दर्द का इलाज बाद में करवा लूँगा।”
मैं स्तब्ध रह गया।
मैंने जेब से पर्स निकाला और नोट उनकी ओर बढ़ाए—
“बाबा, यह मेरा कर्ज़ है… कृपया रख लीजिए।”
उन्होंने सिर हिलाकर मना कर दिया।
“बेटा, इंसान का कर्ज़ पैसों से नहीं उतरता। अगर सच में कुछ लौटाना चाहता है तो किसी और की मदद करना। किसी और की ज़िंदगी बचाना।”
इतना कहकर वो उठे और अपनी छड़ी टेकते हुए धीरे-धीरे भीड़ में गुम हो गए। मैं वहीं खड़ा रह गया, पत्थर की तरह।
उस पल मुझे समझ आया—
कभी-कभी अनजान हाथ सिर्फ शरीर नहीं बचाते, वो हमारी सोच को भी नया जन्म दे जाते हैं।