थोड़ी देर बाद नाम पुकारा गया। “काव्या!” मिसेज वर्मा ने कॉपियाँ टेबल पर पटक दीं और कहा—“देखिए, आपकी बेटी अंग्रेज़ी में तो बिल्कुल फेल है।” राजीव बाबू ने कॉपी खोली, गलत वर्तनी और अधूरे वाक्य देखकर सब समझ गए। काव्या सिर झुकाए बैठी थी, लेकिन राजीव बाबू ने सहज स्वर में कहा—“मैम, अंग्रेज़ी हमारी मातृभाषा नहीं है। इस उम्र में बच्चे खेल-खेल में सीखते हैं, डिक्शनरी खोलकर नहीं।” मैडम की भौंहें तन गईं। उन्होंने तुरंत हिंदी की कॉपी सामने कर दी—“तो यह देखिए, हिंदी में भी हालत खराब है।” कॉपी में कहीं अधूरे वाक्य थे, कहीं तिरछे अक्षर। राजीव बाबू ने गंभीर स्वर में कहा—“हिंदी कठिन ज़रूर है, लेकिन भावनाओं की भाषा है। शायद काव्या भावनाएँ समझती है, बस लिखने में कमजोर है।”
अब मैडम झुँझला उठीं। उन्होंने कहा—“और कंप्यूटर? आज के ज़माने का बच्चा मोबाइल चला सकता है, पर आपकी बेटी बेसिक में भी फेल है।” राजीव बाबू अब भी मुस्कुरा रहे थे—“मैडम, अभी बच्चों को खेल का मैदान चाहिए, न कि लैपटॉप की स्क्रीन। अगर बचपन कंप्यूटर में ही खो गया तो असली ज़िंदगी कहाँ रहेगी?” मैडम का गुस्सा अब चरम पर था। उन्होंने आख़िरी दांव खेला—“और गणित? देखना चाहेंगे?” राजीव बाबू ने बिना हिचक कहा—“हाँ, बिल्कुल।”
अनमने मन से मैडम ने गणित की कॉपी थमा दी। पन्ना पलटते ही राजीव बाबू की आँखें चमक उठीं। हर सवाल सही, हर समीकरण सटीक और हर सवाल पर पूरे अंक। वे गर्व से बोले—“अंग्रेज़ी, हिंदी और कंप्यूटर आप पढ़ाती हैं, पर गणित मैं सिखाता हूँ। नतीजा आप देख ही रही हैं।” काव्या की आँखें चमक रही थीं। वह पापा की ओर झेंपकर देख रही थी मानो कहना चाह रही हो—“आप ही मेरे असली हीरो हो।”
कक्षा में पहली बार सन्नाटा छा गया। मैडम निरुत्तर थीं। बाकी अभिभावक भी चुपचाप देख रहे थे, कुछ के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। राजीव बाबू उठे और मुस्कुराते हुए बोले—“मैम, मेरी बेटी शरारती है, मानता हूँ। लेकिन यही शरारत उसकी मासूमियत है। उम्मीद है अगली बार शिकायत की बजाय तारीफ़ सुनने को मिलेगी।”
कक्षा से बाहर निकलते ही काव्या ने पापा का हाथ कसकर पकड़ लिया। उसकी आँखों में डर की जगह अब चमक थी। उसने धीमे से कहा—“पापा, अब मुझे पढ़ाई से डर नहीं लगेगा। आप मेरे साथ हो न?” राजीव बाबू ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—“हमेशा, मेरी बेटी। हमेशा।” दोनों के चेहरों पर संतोष और जीत की मुस्कान थी।
उस दिन केवल एक रिपोर्ट कार्ड नहीं बाँटा गया था। उस दिन यह साबित हो गया था कि पढ़ाई केवल कॉपियों और अंकों से नहीं होती, बल्कि प्यार और धैर्य से भी होती है। उस दिन पिता और बेटी का रिश्ता और गहरा हो गया था। और पहली बार मिसेज वर्मा को यह समझ आया कि बच्चों की सबसे बड़ी शिक्षा किताबों से नहीं, बल्कि माता-पिता के विश्वास और स्नेह से आती है।