
थकी-हारी, बदहवास सी मीना रोते हुए घर की ओर भागी। घर का दरवाजा खटखटाया तो माँ ने तुरंत खोला। मीना को देखते ही माँ के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसके कपड़े फटे हुए थे, बाल बिखरे थे और चेहरे पर दहशत साफ झलक रही थी। माँ ने घबराकर पूछा—“क्या हुआ बेटा? सब ठीक तो है? तेरे साथ कुछ गलत तो नहीं हुआ?” मीना माँ से लिपट गई और बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने लगी। फिर काँपते-काँपते उसने सारी कहानी सुनाई। माँ की आँखों में आँसू आ गए। वो पति की ओर मुड़ी और गुस्से से बोली—“कहा था ना, बेटी की शादी कर दो, पर नहीं… आपको तो उसकी खुशी से मतलब था। नौकरी करने की इजाजत दे दी। अगर आज इसके साथ कुछ हो जाता तो?” उसकी आवाज दर्द और गुस्से से काँप रही थी।
मीना के पिता ने गहरी साँस ली और शांत स्वर में बोले—“मीना की माँ, हम कब तक बेटियों को डर-डरकर घर में बिठाकर रखेंगे? क्या शादी कर देना ही समाधान है? शादी के बाद भी क्या उसकी सुरक्षा की गारंटी है? असली जरूरत है बेटियों को मजबूत बनाने की, उन्हें यह सिखाने की कि कैसे हर मुश्किल का सामना करें। अगर आज मीना ने हिम्मत नहीं दिखाई होती तो सोचो क्या हो सकता था। हमें डर से ज्यादा हिम्मत सिखानी होगी।” मीना ने आँसू पोंछे और दृढ़ आवाज में कहा“हाँ माँ, पापा सही कह रहे हैं। आज अगर इन्होंने मुझे बचपन से ये सीख नहीं दी होती तो मैं हार जाती। मैं चुपचाप रोती रहती और वो लोग जीत जाते। पर मैंने हार नहीं मानी। आज मैंने सीखा कि बेटियों को कमजोर नहीं बनना चाहिए। हमें खुद को बचाने की ताकत खुद ही पैदा करनी होगी।”
उस रात मीना अपने कमरे में बैठी बहुत देर तक सोचती रही। डर अब भी उसके मन में था, लेकिन उससे भी बड़ा था उसका आत्मविश्वास। उसे एहसास हुआ कि जिंदगी का असली मतलब डर से भागना नहीं बल्कि उसका सामना करना है। अगले दिन जब वह ऑफिस गई तो उसके चेहरे पर अजीब सा तेज था। उसके सहकर्मी उसके हौसले को देखकर दंग रह गए। कुछ ने कहा—“तुम बहुत बहादुर हो।” कुछ ने कहा—“अगर हम होते तो शायद हार मान जाते।” लेकिन मीना ने मुस्कुराते हुए बस इतना कहा—“मैंने वही किया जो मुझे करना चाहिए था। डर से डरना बंद करना है, तभी जिंदगी जी जा सकती है।”
दिन बीतते गए। मीना के इस अनुभव ने उसके भीतर एक नई ऊर्जा जगा दी। अब वो सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि समाज की हर लड़की के लिए कुछ करना चाहती थी। उसने तय किया कि वो आत्मरक्षा की ट्रेनिंग लेगी और दूसरी लड़कियों को भी सिखाएगी। उसने पास के सामुदायिक केंद्र में जुड़कर लड़कियों को कराटे और आत्मरक्षा की कक्षाएं देना शुरू किया। धीरे-धीरे उसकी कक्षा में दर्जनों लड़कियाँ जुड़ गईं। हर लड़की की आँखों में वही डर था जो कभी मीना की आँखों में था। लेकिन मीना उन्हें सिखाती कि डर से भागना नहीं है। उसने कहा—“ताकत सिर्फ मांसपेशियों की नहीं होती, ताकत होती है हिम्मत की, सोच की। जब तुम ठान लो तो कोई भी तुम्हें हरा नहीं सकता।”
मीना के पिता अक्सर उसकी क्लास देखने आते और गर्व से मुस्कुराते। माँ भी धीरे-धीरे समझ गईं कि बेटी की शादी ही समाधान नहीं, बल्कि उसे आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनाना सबसे जरूरी है। मीना की कहानी पूरे मोहल्ले में फैल गई। अखबारों में छपी, टीवी चैनलों पर दिखाई गई। लोग उसे “बहादुर बेटी” कहने लगे। लेकिन मीना कहती—“मैं कोई नायिका नहीं हूँ, मैं तो वही हूँ जो हर लड़की हो सकती है अगर उसे हिम्मत सिखाई जाए।”
समय बीता और मीना ने अपनी ट्रेनिंग से दर्जनों लड़कियों को मजबूत बना दिया। एक दिन एक छोटी लड़की ने उससे कहा दीदी, अगर कभी कोई मुझे छेड़ेगा तो मैं भी लड़ूंगी। अब मैं डरूंगी नहीं।” उस बच्ची की आँखों में चमक देखकर मीना का दिल भर आया। उसे लगा कि उसका संघर्ष बेकार नहीं गया। उस रात उसने डायरी में लिखा “वो काली रात जिसने मुझे डराया था, उसी ने मुझे असली रोशनी दिखाई। अब मैं सिर्फ अपने लिए नहीं, हर उस बेटी के लिए जीऊँगी जिसे दुनिया कमजोर समझती है।